वेद,पुराणों में भी मूर्तिपूजा का खण्डन।
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वेद में स्पष्ट बता दिया गया है कि ईश्वर की कोई प्रतिमा अथवा मूर्ति हो ही नहीं सकती । लिखा है: न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। (यजु० अ० ३२ । मं० ३ ।।) इसके कई सारे प्रमाण हमने उपस्थापित करके अपने मित्रों को समझाने का प्रयास किया है। परन्तु इनको इस तरह से बरगलाया गया की सत्य को कभी स्वीकार करने की हिम्मत ही नहीं होती। यजुर्वेद में बताया कि "अकायम्, अव्रणम्, अस्नाविरम्," अर्थात् उस ईश्वर का कोई शरीर, नस-नाड़ी, अथवा छिद्र आदि नहीं होते । इस प्रकार और भी स्पष्ट कहा कि - "न तस्य प्रतिमा अस्ति" अर्थात् उसकी कोई प्रतिमा नहीं है । और भी कहा कि "अन्धन्तमः प्रविशन्ति ये असम्भूतिमुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रताः । जो कोई ईश्वर के स्थान पर प्रकृति अथवा प्राकृतिक पदार्थों की पूजा करता है वे लोग अन्धकारमय योनियों को प्राप्त होते हैं । यानी अपनी जिन्दगी अन्धकार में जी रहे हैं।
पुराणों में भी लिखा है:
"तीर्थानि तोयपूर्णानि देवान्पाषाणमृन्मयान् । योगिनो न प्रपद्यन्ते स्वात्मप्रत्ययकारणात्” ।। यह शिवपुराण के वायुसंहिता, खण्ड-2, अध्याय-39 के श्लोक 29 में बताया गया है कि पानी से भरे हुए तीर्थों तथा पत्थर और मिट्टी के बने हुए देवताओं को योगी लोग ग्रहण नहीं करते, क्योंकि इनको अपनी आत्म में विश्वास होता है ।
यस्यात्मबुद्धिः कुणपे त्रिधातुके स्वधी: कलात्रादिषु । यत् तीर्थबुद्धि: सलिलेन कर्हिचिज्जनेषु अभिज्ञेषु स एव गोखर: ।।
यह भागवतपुराण स्कन्ध- 10, अध्याय-84, श्लोक-13, में वर्णित है । इसका अर्थ है की - जो मनुष्य । तीन धातुओं के बने हुए शरीर को आत्मा समझता है, स्त्री-पुत्र आदि को अपना समझता है, पृथिवी के पत्थर, लकड़ी, धातु आदि की बनी हुई वस्तुओं को पूजा करता है और जलों को तीर्थ मानता है, बुद्धिमानों में उनकी गणना भी नहीं करनी चाहिए, अपितु वह बोझ उठानेवाले बैल और गधे के बराबर है ।
अवेदविहिता पूजा सर्वहानिकरन्डिका । पूजेयमधुना वा ते किमु वा पुरुषक्रमात् ।। यह ब्रह्मवैवर्तपुराण, खण्ड -4, अध्याय-21, श्लोक-52 में श्री कृष्णा जी ने नन्द जी से कहा कि यह इन्द्र आदि की पूजा करना वेद-विरुद्ध है ।
जिनसे यह पता चलता है कि पुराणों के प्रणेता भी किन्हीं क्षेत्र में मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध समझते थे। और वेद में एक मात्र निराकार ईश्वर की ही पूजा का विधान है। यह सब जानते थे । वेदों में पठित जब ईश्वरीय वाणी से भी लोगों को विश्वास नहीं होता कि मूर्ति-पूजा अथवा जड़ पदार्थ को ईश्वर मान कर पूजा करना उचित नहीं है।
चारों वेद में एक भी ऐसा मंत्र नहीं है जिससे मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जा सके। प्राण प्रतिष्ठा करने का काम ईश्वर का है मनुष्यों का नहीं।
हमारे कुछ पौराणिक भाइयों का कहना है कि मूर्तिपूजा प्राचीन काल से चली आ रही है । और तो और वेदों में भी मूर्ति पूजा का विधान है। अब आइये सत्य की ओर चलते हैं। जाने सत्य क्या है? वेदों में मूर्ति पूजा का विधान नहीं है और तो और पुराण भी मूर्तिपूजा करने को मना करता है।
वेद ने तो घोषणापूर्वक कहते हैं- न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः। हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येषः।। (यजु० अ० ३२ । मं० ३ ।।) शब्दार्थ:-(यस्य) जिसका (नाम) प्रसिद्ध (महत् यशः) बड़ा यश है (तस्य) उस परमात्मा की (प्रतिमा) मूर्ति (न अस्ति) नहीं है (एषः) वह (हिरण्यगर्भः इति) सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों को अपने भीतर धारण करने से हिरण्यगर्भ है।(यस्मात् न जातः इति एषः) जिससे बढ़कर कोई उत्पन्न नहीं हुआ,ऐसा जो प्रसिद्ध है। स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। (यजु० ४०/८) भावार्थ:-वह सर्वशक्तिमान्,शरीर-रहित,छिद्र-रहित,नस-नाड़ी के बन्धन से रहित,पवित्र,पुण्य-युक्त,अन्तर्यामी,दुष्टों का तिरस्कार करने वाला,स्वतःसिद्ध और सर्वव्यापक है।वही परमेश्वर ठीक-ठीक रीति से जीवों को कर्मफल प्रदान करता है। यद् द्याव इन्द्र ते शतं शतं भूमिरुत स्युः। न त्वा वज्रिन्सहस्रं सूर्या अनु न जातमष्ट रोदसी।। (अथर्व० २०/८१/१) भावार्थ:-सैंकड़ों आकाश ईश्वर की अनन्तता को नहीं माप सकते।सैकड़ों भूमियाँ उसकी तुलना नहीं कर सकतीं।सहस्रों सूर्य,पृथिवी और आकाश भी उसकी तुलना नहीं कर सकते। एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च।। (श्वेता० ६/१२) भावार्थ:-एक परमात्मा ही सब पदार्थों में छिपा हुआ है।वह सर्वव्यापक है और सब प्राणियों का अन्तरात्मा है।वही कर्मफल प्रदाता है।सब पदार्थों का आश्रय है।वही सम्पूर्ण संसार का साक्षी है,वह ज्ञानस्वरुप,अकेला और निर्गुण-सत्व,रज और तमोगुण से रहित है।
गीता में भी कहा है
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थित: सदा। तमवज्ञाय मां मर्त्य: कुरुतेऽर्चाविडम्बनम्।। यो}दीपकम्।। निर्लेप ईश्वर को चन्दन लगाने से क्या?जो सुगन्ध की इच्छा से रहित है उसे पुष्प क्यों चढ़ाते हो?निर्गन्ध को धूप क्यों जलाते हो?जो स्वयं प्रकाशमान है उसके समक्ष दीपक क्यों जलाते हो? वृद्ध चाणक्यजी ने मूर्तिपूजा को मूर्खों के लिए बताया है।
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्। प्रतिमा स्वल्पबुद्धिनां सर्वत्र समदर्शिन:।। -चाणक्यनीति 4-19 अग्निहोत्र करना द्विजमात्र(ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य)का कर्तव्य है।मुनि लोग हृदय में परमात्मा की उपासना करते हैं।अल्प बुद्धिवाले लोग मूर्तिपूजा करते हैं।बुद्धिमानों के लिए तो सर्वत्र देवता है।
कबीरदासजी ने इस पाखण्ड का खण्डन करते हुए कहा था- पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजू पहार। ताते तो चक्की भली की पीस खाये संसार।।
अब प्रश्न ये उठता है कि इस देश में मूर्तिपूजा कब प्रचलित हुई और किसने चलाई?
Arjun Rai
(Journalist)